एक्टर विनीत रैना की आपबीती: कहा जाता था- औरतों को छोड़कर कश्मीर से निकल जाइए; बिजली के खंभों पर लगा देते थे मरने वालों की सूची

एक्टर विनीत रैना की आपबीती: कहा जाता था- औरतों को छोड़कर कश्मीर से निकल जाइए; बिजली के खंभों पर लगा देते थे मरने वालों की सूची
एक्टर विनीत रैना

मुल्क, मर्यादा, तुम बिन जाऊं कहां, हर घर कुछ कहता है, मायका, उड़ान, परदेस में है मेरा दिल आदि टेलीविजन धारावाहिक कर चुके विनीत रैना घर-घर लोकप्रिय हुए हैं, लेकिन कम ही लोग जानते हैं कि उन्होंने भी कश्मीर पलायन का दर्द सहन किया है। तब वो कुछ चार-पांच साल के ही थे। जानते हैं, विनीत की आपबीती, उन्हीं की जुबानी:

अचानक से होने लगे गन फायर

मैं चार-साल का रहा होऊंगा, जब यह वाकया हुआ था। लेकिन जिंदगी में कुछ वाकये ऐसे होते हैं, जो आपके दिल-ओ-दिमाग पर छप जाते हैं। एक बच्चा हादसे से गुजरता है, तब उसको कभी भूलता नहीं है। वैसा ही कुछ मेरा हाल है। मुझे उस वक्त की बहुत ज्यादा चीजें याद तो नहीं हैं, लेकिन इतना याद है कि बहुत तनाव वाला माहौल हुआ करता था।

मेरे घर के सामने वाले घर में इलाके के मशहूर विकास बेकरी वाले रहते थे। उनकी बेकरी की बहुत बड़ी और फेमस शॉप थी। लोगों ने उनके घर में घुसकर उन्हें मार दिया। फिर तो बहुत ही अफरा-तफरी वाला माहौल हो गया। मुझे याद है कि किस तरह से मम्मी-पापा ने हम सबको घर के अंदर छिपाकर रख दिया था। अचानक से गन फायर होने लगे थे। वह बहुत ही खौफनाक वाकया था। वे हमारे घर में घुसते और हमारे साथ ऐसा कुछ करते, इससे पहले भगवान की कृपा रही कि मेरे घर वालों ने समझदारी दिखाई और रातों-रात वहां से निकल गए।

उन दिनों घर की दीवारों पर, बिजली के खंभों पर हिट लिस्ट लगाई जाती थी। उसमें नंबर और नाम लिख देते थे कि इनका नंबर पहला है, दूसरा नंबर उनका है, रात भर में कश्मीरी पंडित निकल जाइए, वह भी औरतों को छोड़कर। इस तरह के नारे भी लगा करता था। मेरे खयाल से कई बार तो वे लोग हिट लिस्ट का इंतजार भी नहीं करते थे। उनको जहां जाना होता था, जिस एरिया में मारना होता था, जाकर मार देते थे। हर तरफ भय का माहौल था। जो लोग थोडे़ मशहूर और बड़े ओहदे वाले होते थे, उन्हें पहले टारगेट किया था ताकि डर का माहौल बन जाए।

पूरा टब्बर रातों-रात हो गया खाली

मुझे अच्छी तरह याद है कि हम बिना कुछ खाए-पिए, एकाध ग्लास, प्लेट, कम्बल लेकर घर से निकल गए। मेरा और मेरे बड़े भाई का किताबों का बस्ता तक नहीं ला पाए। अचानक बोला गया था कि यहां से चले जाइए। घरवालों ने कुछ उठाया नहीं। हमारे पास सिर्फ चौबीस घंटे का वक्त था। उस समय इतना कैब का जमाना नहीं था। हम सब अपनी प्राइवेट बस करके उसमें भर-भरकर वहां से चल दिए। हमारी पूरी की पूरी फैमिली और पूरा टब्बर वहां से रातों रात रवाना हो गया था। कुछ भी लेकर नहीं आए हम लोग, कुछ भी नहीं।

चंद कपड़े बैग में डालकर वहां से निकल पड़े थे। हम रातोंरात राजा से रंक हो गए थे। राजा से भिखारी हो गए थे। बहुत डरावना माहौल था। किसी तरह हम सब जान बचाकर निकले थे। हम ही नहीं, हमारे मोहल्ले और आसपास के बहुत सारे लोग बस में सवार होकर जम्मू की तरफ रवाना हो रहे थे। ये बसें वहां के ट्रांसपोर्ट की थीं। उन्हें तो पैसों से मतलब था। उस वक्त वे लाने के लिए पैसे भी ज्यादा चार्ज कर रहे थे। मैं तो बहुत ही ज्यादा छोटा था। वहां से आने के बाद कभी जाना नहीं हुआ। यह मसला शुरू हुआ, तब खत्म ही कहां हुआ, जो जा सकूं। हमारे आने के बाद हालात बद-से-बदतर होते चले गए। बहुत ज्यादा मार-काट मच गई। कुछ जान बचाकर आ पाए, कुछ नहीं आ पाए। बहुत ही खराब माहौल था।

बडे से घर से निकलकर छोटे से कमरे में रहना पड़ा

आज भी हमारा घर करन नगर, श्रीनगर, कश्मीर में मौजूद है। अभी उसके अंदर CRPF रहती है, क्योंकि हमारे घर में इतने कमरे हैं कि उसके अंदर पूरी एक बटालियन समा गई। मेरा घर 25 से 30 कमरों का है, जो कुल पांच से छह फ्लोर का पूरा मकान है। सरकार ने उसे ऑक्युपायड करके रखा है, इसलिए घर में CRPF रहती है। जैसा कि बताया हमारे घरवालों ने समझदारी दिखाई और वहां से रातों रात निकल गए। घरवाले बताते हैं कि एक-दो दिन पहले ही घर से एक दादाजी निकलकर जम्मू आ गए थे। जम्मू आकर उन्होंने एक छोटा-सा कमरा रेंट पर ले लिया था। दूसरे दिन हमारी पंद्रह-सोलह सदस्यों की ज्वाइंट फैमिली बड़े-से मकान से निकलकर छह बाई छह के छोटे-से कमरे में आ गए। उसमें हम सब किसी तरह गुजारा करते थे। मेरे दादाजी पांच भाई थे। सभी डिफेंस सर्विसेस में थे। घर में दादा-दादी, चाचाजी-चाचीजी, ताऊजी, मेरे मम्मी-पापा, दो बुआएं, मैं, मेरा भाई, कजिन सहित घर के कुल 16 सदस्य थे।

छोटे-से कमरे में हम सब एक लाइन से सोते थे। मुंबई की तरह जम्मू में किराए के घर जैसा सिस्टम नहीं था। इतनी भारी तादाद में लोग आ रहे थे, तब शुरू में वहां भी थोड़ा इश्यू था, लेकिन बाद में धीरे-धीरे लोगों ने एक्सेप्ट किया। जिसकी जितनी हैसियत थी, वह उतना किराये पर घर देकर कश्मीरी पंडितों को पनाह दी और उनकी मदद की। जम्मू में मुट्ठी नामक जगह है। वहां पर पूरे टेंट लगे रहते थे। एक मेटरनिटी हॉस्पिटल अंडर कंट्रक्शन था। उस पूरे हॉस्पिटल में कश्मीरी पंडित आसरा दे दिया गया था। लोगों के लिए कॉमन टॉयलेट थे।

इतनी बुरी हालात थी कि उसका अंदाजा भी नहीं लगा सकते। त्रिपाल के अंदर भोजन पकाते और खाते थे। वहां इतनी गर्मी पड़ती थी कि हमारे बहुत सारे बुजुर्गों की मौत हीट स्ट्रोक से हो गई। कितने तो खड़े-खड़े गश्त खाकर गिर पड़ते थे, क्योंकि ठंडे और पहाड़ी इलाके के लोग अचानक से गर्मी में आए थे। कितने सारे लोगों को हार्ट अटैक तो कितने को सन स्ट्रोक आ गया। जो जगह पर खड़े-खड़े गिरते और मर जाते थे।

किसी के पास खाना नहीं तो किसी के पास पहनने के लिए कपड़े नहीं थे। सबके बैंक एकाउंट, गहना, जेवरात, लॉकर आदि सब कुछ उधर ही रह गया। उस वक्त माहौल यह था कि बैंक जाकर फॉर्म भरो, तब बैंक पैसा देगी। अब इतने आतंक के बीच कौन बैंक जाकर पैसा निकालता है। खैर, किसी तरह लोगों ने मैनेज किया। गवर्नमेंट तो बहुत बाद में एक्टिवेट हुई।

लोकल सिख ने की मदद

जम्मू गए, तब वहां काफी गर्मी पड़ती थी। जब एक कमरे के अंदर इतने लोग भर जाते थे, तब और ज्यादा गर्मी लगती थी। हमारे पास फ्रिज, कूलर वगैरह नहीं था, क्योंकि कश्मीर में इसकी जरूरत ही नहीं पड़ती थी। यहां इतनी गर्मी पड़ती थी कि हम सब बच्चे पास-पड़ोस के घरों से बर्फ मांगकर लाते थे। मतलब मैं और मेरा बड़ा भाई, कजिन सब बच्चे अपना बर्तन लेकर जाते थे, तब कोई अपनी फ्रिज से एक ट्रे बर्फ निकालकर दे देता था।

हां, श्रीनगर, कश्मीर से हम सब जब निकल रहे थे, तब वहां के लोकल सिख, मुस्लिम ने बहुत साथ दिया। उन लोग हमें बसें, साधन वगैरह अरेंज करने में काफी मदद की। आतंकवाद का कोई मजहब नहीं होता है। उनका कोई चेहरा नहीं होता। आतंकवादी, आतंकवादी होता है। हर जगह के सभी लोग एक जैसे नहीं होते। सारे एक जैसे हो भी नहीं सकते। जो लोग उनके बहकावे में आ गए, वे आ गए, लेकिन काफी लोगों ने हमारी मदद भी की। हां, कई लोगों की ऐसी भी कहानी है कि उनके आसपास के लोगों ने ही मुखबिरी कर दी, उन्हें धोखा दे दिया। ऐसा भी हुआ है।

पहला शो इंडिया-पाकिस्तान पर बेस्ड था

साल-दो साल छोटे से कमरे से हमें निकलना पड़ा। हमारे बहुत सारे रिश्तेदार दिल्ली चले गए थे। सो हमारे चाचा-चाजी और ताऊजी दिल्ली चले गए। हम लोग जम्मू में ही रह गए। हमें संभलने में ही कई साल लग गए। हमारे स्कूलिंग का ही कुछ अता-पता नहीं था। साल-डेढ़ साल बाद हमें स्कूल ज्वाइन करवाया। हमारे पास न किताबे थीं और न ही यूनिफॉर्म। कुछ पैसों का बंदोबस्त हुआ, तब जाकर हमारा एडमिशन हुआ और किताबें आईं। इस वजह से बहुत ही तकलीफ में हमारा बचपन गुजरा। प्राइमरी तो श्रीनगर में कर रहा था, लेकिन जम्मू में रहने लगा, तब केंद्रीय विद्यालय में हमारा एडमिशन हुआ, क्योंकि मेरे पापा मिलिट्री इंजीनियरिंग सर्विस में थे। उन्होंने किसी तरीके से मेहनत करके एडमिशन दिलाया।

धीरे-धीरे चीजें ठीक होती गईं, तब पापा ने वापस जाकर श्रीनगर, कश्मीर में ड्यूटी ज्वाइन की। इसके अलावा उनके पास कोई चारा भी नहीं था। मम्मी हाउस वाइफ थीं, सो पापा को जाना पड़ा। वे अपनी जान खतरे में डालकर गए। मम्मी और हम दो भाई जम्मू में रहते थे। हम लोग हमेशा इसी फिक्र में रहते थे कि पापा का क्या होगा। मम्मी बहुत परेशान रहती थीं। मां ने समझाया कि तुम लोग पढ़ोगे, तभी कुछ हो पाएगा। यहां से तुम्हारी जिदंगी, तुम्हारा फ्यूचर तुम्हारे हाथ में है। अगर पढ़ाई करोगे, तब कुछ कर पाओगे, इसलिए पढ़ाई पर ध्यान दो।

मैंने किसी तरह ग्रेजुएशन और उसके बाद कंप्यूटर में डिप्लोमा कंप्लीट किया। स्कूलिंग के साथ-साथ मैंने लोकल चैनल डीडी कश्मीर के लिए काम करना शुरू किया था, ताकि घर की कुछ मदद हो जाए। बहुत छोटी उम्र में आठवीं-नौंवी में था, तब अपने ट्यूशन, किताबें और आने-जाने का खर्च खुद उठाने लग गया था। मैं फाइनेंस में MBA करना चाहता था, लेकिन हमारे पास पैसे नहीं थे, इसलिए कर नहीं पाया।

जम्मू से ग्रेजुएशन कंप्लीट करने के बाद कुछ टाइम जॉब भी किया। लेकिन वहां ज्यादा अवसर नहीं थे, इसलिए फैसला किया कि बड़े शहर में जाकर कुछ करूंगा। मुझे थोड़ी-बहुत एक्टिंग आती थी, इसलिए सोचा कि मुंबई जाकर ऑडिशन और जॉब, दोनों में से जो पहले मिल जाएगा, वह करूंगा। फिर कुछ भी उतार-चढ़ाव आ जाए। तकदीर को मंजूर था कि एक्टर बनूं, सो पहले ऑडिशन में सिलेक्ट हो गया।

जब सिलेक्ट होने का कॉल आया, तब बहुत खुश हुआ। यह मुल्क नामक शो था, जिसे गिरीश बंसल ने प्रोड्यूस किया था। संयोग देखिए कि यह शो इंडिया और पाकिस्तान के पार्टीशन पर बेस्ड था। इसमें प्राइम कैरेक्टर मिला, जो बहुत सराहा गया। एक दिन का 1500 रुपए मिलता था और महीने में 15 से 20 दिन शूट करता था। मम्मी-पापा के लिए कुछ करना था, इसलिए पैसे जमा करने लगा। मुल्क, मर्यादा, तुम बिन जाऊं कहां, हर घर कुछ कहता है, मायका, उड़ान, परदेस में है मेरा दिल आदि धारावाहिक करते चला गया। उधर मेरा भाई ने भी ग्रेजुएशन कंप्लीट करके लॉ और उसके बाद एक कंपनी में काम करने लग गया।

कभी नहीं उठाए हथियार

अभी मम्मी-पापा जम्मू में रहते हैं। धीरे-धीरे हम दोनों भाइयों ने काम करना शुरू किया, तब पैसे जोड़-जोड़कर जम्मू में एक छोटा-सा मकान बनाया। हम नहीं चाहते थे कि माता-पिता किराये के घर में इधर से उधर भटकते रहें। खैर, मैं ही क्या, जितने भी कश्मीरी पंडित कश्मीर से बाहर निकाले गए, हमने कभी नहीं सोचा कि धरना-प्रदर्शन किया जाए या मोर्चा निकाला जाए। हमने कभी हथियार नहीं उठाया।